बहरूपिया कला: विलुप्त होती विरासत की पीड़ा, जो गली-गली में खिलाती थी मुस्कान,आने वाली पीढ़ियां इस से हो जाएगी अंजान

बघेरा 29 जून (केकड़ी पत्रिका/ललित नामा):आधुनिकता की तेज रफ्तार और इंटरनेट की चमक में लोकसंस्कृति की कई अमूल्य कलाएं धीरे-धीरे गुमनामी के अंधेरे में खोती जा रही हैं। ऐसी ही एक दुर्लभ लेकिन जीवंत कला है बहरूपिया कला, जो कभी गांव-गांव, गली-गली जाकर लोगों को हँसी और हैरानी से भर देती थी। अब वही कला, जो कभी बच्चों के चेहरों पर मुस्कान लाती थी, आज उपेक्षा और बेरुखी की मार झेल रही है।
तरह-तरह के स्वांग से कर रहा है मनोरंजन
हाल ही में बघेरा ग्राम में एक बहरूपिया कलाकार ने अपना स्वांग दिखाया और बच्चों को खूब हँसाया। जब उससे बातचीत की गई तो उसने अपनी गहरी पीड़ा व्यक्त की।”हमारे बाप-दादाओं से यह कला हमें विरासत में मिली है। हम घर-घर जाकर, गली-गली घूमकर बच्चों का मनोरंजन करते हैं। तरह-तरह के स्वांग रचते हैं – कभी पुलिस, कभी राजा, कभी साधू कभी जोकर या कभी शंकर हनुमान बनकर। हमारी बोली, हावभाव और भाषा की शैली देखकर लोग हँसते-हँसते लोटपोट हो जाते थे।”लेकिन अब यह सब बीते दिनों की बात बनती जा रही है।
मोबाइल के जमाने में हो रही है बेरुखी
मोबाइल और इंटरनेट के इस युग में बच्चे अब मोबाइल स्क्रीन में ही व्यस्त रहते हैं। न पहले जैसी भीड़ लगती है, न कोई ठहरकर इस जीवंत कला को देखता है।”आज तो लोग हमें अजनबी नजरों से देखते हैं, जैसे हम किसी पुराने जमाने की चीज हों,” उन्होंने दुख भरे स्वर में कहा।यह केवल एक कलाकार की बात नहीं है – यह उन सैकड़ों-हजारों लोककलाकारों की आवाज़ है जो आज समाज के हाशिए पर धकेले जा रहे हैं।
यह सवाल खड़ा करता है कि क्या हमें अपनी सांस्कृतिक विरासत को यूं ही खत्म होते देखना चाहिए?जरूरत है कि पंचायत, स्कूल, सामाजिक संस्थाएं और सरकार मिलकर ऐसे लोक कलाकारों को प्रोत्साहित करें, मंच प्रदान करें और उनकी कला को आज के दौर से जोड़ने का प्रयास करें।बहरूपिया केवल एक वेश नहीं, यह हमारी मिट्टी की महक है, संस्कृति का रंग-बिरंगा आईना है। इसे बचाना और संजोना आज की जरूरत है नहीं तो आने वाले पीढ़ी इस कला से अनजान हो जाएगी।