काव्य/कविता/शायरी:”बाग में पपीहा”

बाग में पपीहा कुंजन कर रहा था ,
बावरा मन मिलन को मचल रहा था!
शायद वो वहां आयी चहलकदमी को,
दीदार को उसके बार बार टेर रहा था !
बहुत दिन हो गये उससे बिछड़े हुए ,
शांत मन में मिलन ज्वार उठ रहा था !
बहती मंथर गति से नदी को देख कर ,
कैसे पानी नदी से किनारा कर रहा था!
वो नही देखना चाहती मैं जिंदा भी रहूँ,
उसके जुल्मों सितम गवारा कर रहा था!
रात जमी फूलों पर शबनम की बूंदों को,
सूरज अपनी किरणों से बटोर रहा था!
क्यों डूबा उस हरजाई की मोहब्बत में ,
मन मुझे गलती के लिए कचोट रहा था!
#गोविन्द नारायण शर्मा