2 June 2025
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शुष्क तरु से लिपटी एक कृशकाय मानवी, निर्निमेष दिगन्ततकती पीताम्बर ओढ़े तन्वी!

क्या है अन्तस् रूह छलनी घोर तिमिर छाया, झूंठे वादे बेमानी फ़रेबी कैसा जाल बिछाया!

तरु नीचे अडिग खड़ी खुला व्योम न छाया, निष्ठुर बसन्त ने छीना वृक्षों से पल्लव साया!

अस्ताचल गामी दिनकर क्षितिज निहारती, क्या खोया क्या पाया जीवन मे विचारती!

निशिदिन जलती रही तपती धरा ऊपर घाम, लता सी चिपकी रही सूखे तन पर ज्यूँ चाम!

शाख से टूटी टहनी के दर्द को जानता कौन, झंझावातों को दंडित करने का दम भरे कौन !

हरितमा से आच्छादित तरुवर ठूंठ हो गया, करते हजारों खग बसेरा अब वीरान हो गया!

रचनाकार : गोविंद नारायण शर्मा

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