व्यंग:गले पड़ने वाले दोस्त (रचनाकार –डॉ मुकेश ‘ असीमित’)
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यूं तो जीवन के हर पड़ाव में दोस्त मिलते हैं, कुछ छूट जाते हैं, कुछ गले पड़ जाते हैं। कुछ ऐसे होते हैं, जो आपको दोस्त बदलने का मौका ही नहीं देते। दोस्तों की यूँ तो हजारों श्रेणियाँ बनाई गई हैं, कुछ दोस्त कमीने होते हैं, कुछ आस्तीन के साँप की भूमिका अदा करते हैं। लेकिन मुझे लगता है, दोस्तों के सिर्फ दो प्रकार होते हैं: गले मिलने वाले दोस्त और गले पड़ने वाले दोस्त। लेकिन कुछ दोस्त होते हैं नायाब, ये गले मिलने वाले भी और गले पड़ने वाले भी, दोनों श्रेणियों पर बराबर कब्जा जमाए हुए होते हैं।
गले मिलने वाले दोस्त वे हैं, जिनके साथ गलबहियाँ करते हुए आपने अपना पूरा बचपन निकाला। लेकिन अब ध्यान रहे, गलबहियाँ करते हुए मिले तो शायद अब आपको शक की निगाह से देखा जाए। गलबहियों के मायने बदल गए हैं। ‘आदमी हूँ, आदमी से प्यार करता हूँ’ वाला मतलब निकालने में देर नहीं लगती है। इसलिए अब दोस्तों के साथ गलबहियाँ करना थोड़ा खतरनाक हो गया है। मेरे पड़ोस के शर्मा जी का लड़का इसी गलबहियों के शौक के कारण कुंवारा रह गया।
मेरे एक दोस्त हैं, जिन्हें दोस्त के गले से बड़ा लगाव है। यार के गले मिलते ही गला नापने लगते हैं। पूछने पर कहते हैं, “अरे भाई, मैं तो तुझे तेरी बर्थडे पर टी-शर्ट गिफ्ट देने वाला हूँ ना, इसलिए गला नाप रहा हूँ।” एक दोस्त का गला उन्होंने साल भर नापा। जिसका गला नापा, वह प्रशासनिक विभाग में ऊँचे ओहदे के अधिकारी थे। मिलते ही उन्होंने उनसे पहले आए अधिकारी के गले की नाप लेते हुए फोटो और सचित्र प्रमाण के साथ अपनी गलबहियाँ वाली दोस्ती की पात्रता रख दी। अधिकारी को ऐसे गलबहियाँ वाले दोस्त की सख्त तलाश थी। यह उनका रिश्वत को हाथ भी नहीं लगाने का एक जरिया था।
अधिकारी भी शातिर थे। उनसे गला नपवाते रहे और शहर के व्यापारियों, कर्मचारियों का गला काटते रहे। इस दोस्त ने भी गला नापकर कई अपने काम निकलवा लिए। गला नापने वाले की फोटो खींचता और इस गलबहियों के धाक पर अच्छा-खासा रसूख शहर में जमा लिया। उन्होंने साल भर गला नापा, इतना गला नापा कि दोस्त का गला भर आया। वह कहने लगा, “बस कर भाई, गला ही नापता रहेगा कि कभी टी-शर्ट भी लाकर देगा।”
बाद में पता चला कि उस दोस्त का ट्रांसफर दूसरे शहर में हो गया, और उन्होंने उसकी जगह आने वाले अधिकारी के गले नापने की तैयारी शुरू कर दी थी। दोस्ती भी वह गला देखकर ही करते हैं। जिनकी गर्दन लंबी हो, उन्हीं से दोस्ती। गला काटने में आसानी होती है। जिनकी गर्दन छाती में धँसी होती है, पता ही नहीं लगता कि सिर सीधा धड़ से लगा हुआ है। ऐसे लोगों से दोस्ती करने से क्या फायदा? गलबहियाँ ही नहीं कर सकते। दोस्ती है तो गलबहियाँ होनी चाहिए ना।
गले पड़ने वाले दोस्तों ने मेरी ज़िंदगी में खास स्थान हासिल किया है। आज मैं जो भी हूँ, इन गले पड़ने वाले दोस्तों की खातिर हूँ। वरना मैं भी आज कुछ अच्छा मुकाम हासिल किए होता, कहीं अच्छे शहर में, अच्छे अस्पताल में, अच्छी पोस्ट पर गलेबाजी कर रहा होता। लेकिन दोस्तों ने गले पड़-पड़कर मुझे अपने से चिपकाए रखा।
इस शहर को छोड़कर जाने के नाम से ही ये ऐसा विलाप करने लगे जैसे मैं उनका गला सूना करके जा रहा हूँ। इतना विलाप तो कृष्ण-वियोग में गोपियों ने भी नहीं किया होगा। हारकर मुझे अपना निर्णय बदलना पड़ा। मेरी श्रीमती जी का गला फाड़-फाड़कर चिल्लाना भी कुछ काम नहीं आया। “इसलिए शादी की क्या तुमसे, यहाँ इस कचरे से शहर में पड़े रहो।” मैं चुपचाप गले में पड़ी इस शादी की फाँस को निगलने की कोशिश कर रहा हूँ।
दोस्ती में गले का विशेष महत्व है। बिना गले के लोगों से क्या दोस्ती? वे किस बात से सहमत हैं या नहीं, यह पता ही नहीं लगता। बिना गले के दोस्त बिना पेंदे के लोटे की तरह होते हैं, लुढ़कने वाले। दोस्त पर मुसीबत पड़ने पर अपनी गर्दन छुपा लेते हैं। कई बार तो गर्दन को जमीन के अंदर धंसा देते हैं।
इस गला-काट प्रतिस्पर्धा के युग में दोस्त ही दोस्त का गला काट सकता है। क्योंकि दोस्त को ही दोस्त का गला नापने का अधिकार होता है। जब तक गला नहीं नापेंगे, गला काटने का औजार तैयार नहीं होगा। जितना मोटा गला, उतना ही काटने के लिए धारदार औजार तैयार करना पड़ता है। अगर गर्दन लंबी और मोटी हो, तो फिर आपको गले पड़ने वाले दोस्तों की लंबी लाइन मिल जाएगी।
ये अपनी खुद की गर्दन को हमेशा छुपाए रखते हैं। इनके गले में कोई पट्टा देख नहीं सकते। मजाल है कि आपको पता लग जाए कि किनके साथ इनकी गलबहियाँ हैं या किन-किन का गला ये काट चुके हैं। जिनका गला कट चुका है, वे बेचारे दुबारा किसी को गला दिखाने के लायक नहीं रहते। ये गला काटकर खुद भी शहर में ढिंढोरा पीटते फिरते हैं। “यार, इनका गला कोई काम का नहीं है। दोस्ती वाला गला नहीं है। गले मिलते ही नहीं हैं। बताओ, हाथ मिलाते हैं दूर से। ये भी कोई दोस्ती है?”
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रचनाकार –डॉ मुकेश असीमित